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कोई तो होता

भटकता जब मैं अपना पथ  भूल जाता लगाकर मैं गोता, वापस मुझको लाने वाला  काश ऐसा कोई तो होता।  गिरकर, भटककर, खाकर चोट  जब मैं मन ही मन रोता,  मेरे दुखों को समझने वाला  काश ऐसा कोई तो होता।  सन्नाटे के धुंध में जब  चुप चुप अकेले मैं सोता,  मुझसे बातें करने वाला काश ऐसा कोई तो होता।  अनगिनत जिम्मेदारियां अपनी  होकर असहाय जब मैं ढोता, मुझको सहारा देने वाला  काश ऐसा कोई तो होता।  जीवन के संघर्षों से लड़कर  जब मैं अपना मनोबल खोता, साहस मुझे बंधाने वाला  काश ऐसा कोई तो होता।  खाकर अपने पीठ पे खंजर  जब मैं अपने जख्मों को धोता,  मरहम मुझको करने वाला काश ऐसा कोई तो होता। -- शशिकांत  * उपरोक्त पंक्तियाँ मेरी पुस्तक " आ तमाशा तू भी देख " का अंश हैं।

आ तमाशा तू भी देख

देखने वाले देखते हैं, सब कुछ देखते हैं ये लोग देख देख कुछ करते नहीं, जाने कहाँ से लगा ये रोग ।  गरीब देखा, पीड़ित देखा, देखे उनके खेत बंजर फर्क उनको कुछ पड़ा नहीं, देख किसानों का ये मंजर झूठ वादा, झूठे काम, किसानों के प्रति झूठा सम्मान सब देख मंद मुस्काते हैं, चाहे फांद गला लटके किसान हिन्दू देखा, मुस्लिम देखा, देखी जाने कितनी जाती पर जिससे इंसान दिखें, ऐसी कला कहाँ उनको आती देखने वाले देखते हैं, सब कुछ देखते हैं ये लोग देख देख कुछ करते नहीं, जाने कहाँ से लगा ये रोग ।  घर में देखा, ऑफिस में देखा, देखा ओलंपिक्स में परचम लहराते चाहे जितने हुनर उनके देखे, पर कसी फब्तियां आते जाते कल के दुश्मन आज हैं भाई, गले पड़े भुला के सब लफड़े लेकर ठेका आदर्शवाद का, नाप रहे दूजों के कपडे अधरों पे बेशर्मी का पर्दा, जो पीड़ित है उसी की गलती देख देख इन बड़बोलों को, दानवों की कमी कहाँ है खलती देखने वाले देखते हैं, सब कुछ देखते हैं ये लोग देख देख कुछ करते नहीं, जाने कहाँ से लगा ये रोग ।  सड़क नहीं, बिजली नहीं, जनता का पैसा, उनकी जेब जहाँ देखो वहीँ मिलेंगे, भरे प