भटकता जब मैं अपना पथ भूल जाता लगाकर मैं गोता, वापस मुझको लाने वाला काश ऐसा कोई तो होता। गिरकर, भटककर, खाकर चोट जब मैं मन ही मन रोता, मेरे दुखों को समझने वाला काश ऐसा कोई तो होता। सन्नाटे के धुंध में जब चुप चुप अकेले मैं सोता, मुझसे बातें करने वाला काश ऐसा कोई तो होता। अनगिनत जिम्मेदारियां अपनी होकर असहाय जब मैं ढोता, मुझको सहारा देने वाला काश ऐसा कोई तो होता। जीवन के संघर्षों से लड़कर जब मैं अपना मनोबल खोता, साहस मुझे बंधाने वाला काश ऐसा कोई तो होता। खाकर अपने पीठ पे खंजर जब मैं अपने जख्मों को धोता, मरहम मुझको करने वाला काश ऐसा कोई तो होता। -- शशिकांत * उपरोक्त पंक्तियाँ मेरी पुस्तक " आ तमाशा तू भी देख " का अंश हैं।
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